पितृपक्ष मृत माता-पिता के प्रति कृतज्ञता प्रकट करने का पक्ष है।-नागेन्द्र प्रसाद रतूड़ी

पितृपक्ष मृत माता-पिता के प्रति कृतज्ञता प्रकट करने का पक्ष है।

नागेन्द्र प्रसाद रतूड़ी 
भारत में प्राचीन समय में समय मापन के लिए चन्द्र तिथियों का उपयोग किया जाता था। महान लोगों की जयंती व बड़ी घटनाओं को तिथियों से याद रखा जाता था। जैसे राम जी के जन्मदिन को राम नवमी,कृष्ण जी के जन्मदिन को जन्माष्टमी।असुरों के संहार के लिए मां भगवती के विभिन्न रूप धारण करने को नवरात्रि व अपने पितरों के प्रति कृतज्ञता जताने का पक्ष पितृपक्ष कहलाता है। पितृपक्ष याने अश्वनी मास की पूर्णिमा से अमावस तक पूरा पक्ष पितृपक्ष कहलाता है।
        जिस तिथि को व्यक्ति की मृत्यु होती है उसी तिथि को पितृपक्ष में उसे उसके बेटे या बन्धु बांधव श्राद्ध देते हैं तिथि याने चन्द्रकला। पूर्णिमा के दिन मृत्यु को प्राप्त व्यक्ति को पूर्णिमा को, पड़वा दूज तीज आदि तिथि (चाहे वह शुक्लपक्ष की हो या कृष्ण पक्ष की) को मरने वाले व्यक्ति का श्राद्ध उसी तिथि को दिया जाता है। जिस मनुष्य की मृत्यु तिथि ज्ञात न हो तो उनका श्राद्ध अमावस्या को दिया जा सकता है। इस प्रकार पितृपक्ष(श्राद्ध देने का समय) सोलह दिवस का होता है।
       मान्यता है कि पितृपक्ष में पितर(मृत माता-पिता ) अपनी मृत तिथि को सूक्ष्म शरीर धरकर पृथ्वी पर आते हैं। जिन पितरों को उनके पारिवारिक जन श्रद्धा पूर्वक श्राद्ध देते हैं उनके नाम पर जलांजलि दी जाती है।अन्नदान वस्त्रदान किया जाता है वे पितर तृप्त होकर परिवार को अनेकों आशीर्वाद देकर अपने लोक को चले जाते हैं। कहा भी गया है -“श्रद्धया इदं श्राद्धम् ।” शास्त्रों में तो श्राद्ध की महिमा में यह भी कहा गया है कि:-
   “ऐकैकस्य तिलैर्मिश्रांस्त्रींस्त्रीन् दद्यांज्जलीन्।
    यावज्जीवकृतं पापं तत्क्षणादेव नश्यन्ति।।”
अर्थात् जो अपने पितरों को तिल मिश्रित जल की तीन-तीन अंजुलि तर्पण करता है उसके अभी तक के हारे पाप नष्ट हो जाते हैं।
जिन पितरों को उनके बच्चे श्राद्ध नहीं देते वे अतृप्त रह कर रुष्ट होकर बच्चों को श्राप देकर अपने लोक लौट जाते हैं। ब्रह्म पुराण के अनुसार तो “श्राद्धं न कुरुते मोहात् तस्यरक्तं पिबंति ते”अर्थात् जो व्यक्ति मोह ग्रसित हो कर श्राद्ध नहीं देता उसके पितर उसी का रक्त पीना प्रारम्भ कर देते हैं।
शास्त्रों के अनुसार जो व्यक्ति अपने पितरों का श्राद्ध नहीं देता वह नरक भोगता है।
 “श्राद्धमेनं न कुर्वाणो नरकं प्रतिपद्यते।”
ऐसे पितर जिन पितरों की संतान नहीं होती वे उन पारिवारिक जनों से अपना श्राद्ध कराने की अपेक्षा रखते हैं जो उनकी धन संपत्ति ,भूमि-भवन का उपयोग करते हैं। अतृप्त पितरों का दोष पारिवारिक सुख शान्ति को नष्ट कर देता है। पितरों के कोप को पितृदोष कहते हैं।
             श्राद्ध में सबसे पहले देवताओं को तर्पण दिया जाता है उसके बाद ऋषियों,दिव्य पुरुषों,यम (अयर्मा)को तर्पण दिया जाता है।इन तर्पणों के पश्चात ही पितर या पितरों को तर्पण दिया जाता है। तर्पण अपने पिता,पिता के माता-पिता(दादा दादी), पिता के दादा-दादी(प्रपितामह व प्रपितामही) व माता,माता के माता-पिता(नाना-नानी) व माता के दादा-दादी(पर नाना-परनानी) को दिया जाता है। तथा अपने पितरों को तर्पण देने के बाद गुरु तर्पण (कुलगुरु ) व गोत्र तर्पण दिया जाता है यह गोत्र तर्पण उन लोगों को दिया जाता है जिनकी अपनी संतान नहीं होती। सबसे अन्त में गंगापुत्र भीष्म को तर्पण दिया जाता है। तर्पण के अन्त में सूर्य को अर्घ्य दिया जाता है।इसीलिए कहा गया है कि तर्पण देने से केवल पितर ही तृप्त नहीं होते बल्कि देवता,ऋषि,यम गोत्रीय बंधु कुल गुरु,भीष्म आदि की आत्माएं तृप्त होती हैं। सूर्य को अर्घ्य देने से सूर्य भी प्रसन्न होते हैं।साथ ही कन्या,ब्राह्मण, गाय (वैतरणी पार कराने वाली व देवों को अपने‌ शरीर में आश्रय देने वाली)कुत्ता,(यम के प्रिय पशु),कौवा(यम का प्रतीक व शुभ अशुभ बताने वाला), चींटी, जल-जन्तु आदि भी तृप्त होते हैं।
               श्राद्ध का भोजन दोपहर को कराने के संबंध में मान्यता है कि प्रात:सायं का समय देवकार्यों के लिए होता है । रात्रि का समय आसुरी कार्यों‌ के लिए होता है। इसलिए पितृभोग दोपहर के समय लगाया जाता है। मान्यता के अनुसार पितर सूर्य की कारणों से भोजन ग्रहण करते हैं इसलिए दोपहर में सूर्य की तेज किरणों से वह सहज ही भोजन ग्रहण कर लेते हैं।
धार्मिक ग्रंथों के अनुसार जब महर्षि निमि के पुत्र की आकस्मिक मृत्यु के बाद जब वे शोक विह्वल हो गये तो ऋषि अत्रि ने उन्हें श्राद्धकर्म करने की सलाह दी। निमि द्वारा श्राद्ध कर्म करने पर उनके पितर उनके सम्मुख प्रकट हुए और उनके मध्य उनका पुत्र भी पितर रूप में था जिससे उनके मन को शान्ति मिली।तभी से पितरों को श्राद्ध देना प्रारंभ हुआ। भगवान राम ने भी अपने पिता का चित्रकूट की फल्गु नदी तट पर श्राद्ध किया था। इसी भांति महाभारत का युद्ध समाप्त होने पर महाराजा युधिष्ठिर ने भी युद्ध में मारे गये सैनिकों व कौरवों का अन्तिम संस्कार कर उनका श्राद्ध किया था।जिसका अर्थ है यह बहुत प्राचीन परंपरा है।
     वास्तव में पितृ पक्ष में श्राद्ध देना माता-पिता के प्रति कृतज्ञता प्रकट करना है क्योंकि यह मानव शरीर उनका ही तो प्रदान किया हुआ है।
(लेखक राज्य मान्यता प्राप्त कर स्वतंत्र पत्रकार हैं-संपादक)