उत्तराखण्ड के पर्वतीय गांवों में बहुत कठिन हो गया है जीवन जीना -नागेन्द्र प्रसाद रतूड़ी (स्वतंत्र पत्रकार) WWW.JANSWAR.COM

उत्तराखण्ड के पर्वतीय गांवों में बहुत कठिन हो गया है जीवन जीना।

नागेन्द्र प्रसाद रतूड़ी (स्वतंत्र पत्रकार):- वर्तमान समय में उत्तराखण्ड के ग्रामीण क्षेत्र में जीवनयापन करना अत्यधिक कठिन हो गया है। लोग घीरे-धीरे खेती से मुंह मोड़ रहे हैं। जंगली जानवरों द्वारा उनकी खेती, पशुओं और यहां तक कि स्वयं उन्हें नुकसान पहुंचाया जा रहा है। वह विवश सा सब कुछ देख कर भी कुछ नहीं कर पा रहा है। उसे इसकी क्षतिपूर्ति भी नहीं मिलती।ऐसे में जो लोग आर्थिक रूप से सक्षम हैं वे अपनी व अपने बच्चों की सुरक्षा के लिए अपना घर-द्वार जमीन जायजाद छोड़ कर शहरों में जा कर बस रहे हैं और नये सिरे से अपना जीवन प्रारम्भ कर रहे हैं।

एक बसी बसायी जिन्दगी को छोड़ कर नयी जिन्दगी बसाना कितना कष्टकारी होता है यह वही जानता है। जो भोगता है । यह किसी के द्वारा बतायी हुई बात नहीं है बल्कि मेरे द्वारा स्वयं अनुभव किया गया। मेरा गांव जनपद पौड़ी गढवाल के तहसील व विकासखण्ड यमकेश्वर में ग्राम सभा सीला का मुख्य गांव सीला गांव है। उ.प्र.के यशस्वी मुख्यमंत्री की जन्मभूमि ग्राम पंचूर भी इसी ग्राम सभा का खण्ड ग्राम है। यह गांव सतेड़ी गाड़ (रवासण नदी का प्रारंभिक भाग का स्थानीय नाम सतेड़ी है) के किनारे बसा है।यहां की अधिकांश जमीन सिंचित थी।जिससे यहां भरपूर खेती होती थी।गांव की अपनी कूलें थीं।घराट थे।पलायन न के बराबर था।बरसात में कूलें टूटती तो लोग स्वयं बना देते थे। नौकरीपेशा लोग कम ही थे।लगभग हर परिवार के पास गायें,भैस व बैलों की जोड़ी होती थी।कुछ परिवार बकरी पालते थे। सभी के लिए पर्याप्त मात्रा में अन्न उपज जाता था।सभी एक दूसरे का सहयोग करते थे। आज भी करते हैं।

सरकार की नीतियों रक्षित वन्य पशुओं ने सबसे पहले सुअरों व तेंदुओं की संख्या बढाई।तेंदुओं की संख्या बढने पर उसने गोठ में बांधे जाने वाले पशुओं को मारना प्रारंम्भ कर दिया।शोर करने पर वह गोठ्याले(गोठ का रक्षक) पर ही गुर्राने लगा तो लोगों ने गोठ छोड़ दी।गोठ समाप्त होने के बाद अतिरिक्त पशु भार लगने लगे। जिन्हें उसने बेचना शुरु कर दिया। तेंदुओं की संख्या बढने पर वह निडर हो कर दिन दहाड़े गांवों के आसपास चहलकदमी करने लगे हैं कभी कभी तो दिन दहाड़े गौशाला में घुस कर किसानों के पशुधन को मार कर खाने लगा है।ऐसी स्थिति में ग्रामीण अपने बच्चों को स्कूल भेजने में डरने लगे हैं।पशुधन की क्षतिपूर्ति की जटिल प्रक्रिया होने व जिला मुख्यालय के दूर पौड़ी में होने तथा रेंज कार्यालय का लालढांग होने,प्रभागीय वनाधिकारी कार्यालय कोटद्वार होने के कारण क्षतिपूर्ति फाईल भी पता नहीं कहां खो जाती है।

दूसरी ओर जंगली सुअरों ने खेती उजाड़नी प्रारम्भ कर दी है।खेत बिखरे होने से किसान रखवाली भी नहीं कर सकता था। जंगली सुअर तो थे ही अचानक बन्दरों की संख्या बढ गयी। यह बंदरों व लंगूरों का दल (जो बताया जाता है कि कुम्भ के समय हरिद्वार से पकड़कर पहाड़ों में छोड़ दिये जाते हैं) ने खेतों में उगे पौधों से लेकर बालियों तक को नष्ट करना शुरू कर दिया।पेड़ो से कच्चे फल नष्ट करने शुरू कर दिए। यदि बन्दरों,सुअरों से खेती बच गयी तो हजारों की संख्या में तोते व अन्य पक्षी फसल की बालों,फलों को ले उड़ते हैं। पशुओं व पक्षियों से संपूर्ण फसल बरबाद होते देख हताश निराश किसानों ने खेती करना ही छोड़ दिया।न किसानों को कभी उसके पशुओं और फसलों की क्षति पूर्ति ही मिलती है।फलस्वरूप रवासण नदी का यह प्रारंभिक क्षेत्र के खेत आज बंजर पड़ गये है।

उत्तरप्रदेश के समय भी शहरों को दृष्टिगत रखते हुए सरकारें बजट बनाती थीं उत्तराखण्ड बनाने के बाद भी सरकारें शहरों को दृष्टिगत रखते हुए बजट बनाती है।उत्तरप्रदेश के समय जो नहरें पानी से भरपूर थीं आज उनकी मरम्मत भी नहीं होने से वे नष्ट हो रही हैं।मेरे खेतों की दो नहरें 1-सीला की सारी व काटल की सारी की नहरें पिछले तीन साल से टूटी पड़ी हैं पर कोई देखने सुनने वाला नहीं है जो निर्माण कार्यों हो रहे हैं उनकी गुणवत्ता कैसी है देखने वाला कोई नहीं है। ऐसे में पहाड़ी गांवों के पलायन पर विराम लगाना हंसी खेल नहीं।