हमारे बचपन व होली।##पढिएJanswar.com में।

सभी पाठकों को रंगोत्सव की शुभकामनाएं।

अयं होलीमहोत्सवः भवत्कृते भवत्परिवारकृते च क्षेमस्थैर्य आयुः आरोग्य ऐश्वर्य अभिवृद्घिकारकः भवतु अपि च श्रीसद्गुरुकृपाप्रसादेन सकलदुःखनिवृत्तिः आध्यात्मिक प्रगतिः श्रीभगवत्प्राप्तिः च भवतु इति||
।। होलिकाया: हार्दिक शुभाशयाः ।। ??॥
शुभ होली !

पंडित आदित्यमैठाणी

हमारे बचपन व होली

लेख-नागेन्द्र प्रसाद रतूड़ी

मेरे गाँव सीला में होली शायद मेरे जन्म से पहले ही से खेली जाती रही होगी। मुझे याद है कि मैं जब चार पाँच साल का रहा होगा तो दलीपसिंह चाचा (जो बाद में एम.बी.बी.एस.,एम.डी.कर सी.एम.एस. पद से रिटायर्ड जीवन जी रहे हैं।) जो हमारे पड़ोसी थे, ने छरोली(धुलेंडी) के दिन मुझ पर रंग डाला था और मैं रोने लगा था। यह बात सन् 1957-58 की होगी। वे हमसे लगभग 10-12 वर्ष बडे़ हैं।जब मैं कुछ बड़ा हुआ तो मैं भी होल्यारों की टोली में शामिल हो गाँव-गाँव जाने लगा। हम पहले दिन हरसोली, दयाकाटल, कंडारा, तिमल्याणी, बंडारीगाँव, पिपलडाँग जाते थे। दूसरे दिन बनसारी, फेडुवा, ठींगाबाँज, जियाड़काटल, सिलड़ी काटल जाते थे।रात को हम अपने गाँव सीला में होली गाते हुए होली मांगते। फिर 1किमी दूर नदी किनारे जाकर होली पूजते।होली पूजने वाला कोई बड़ा होता और खशामद के बाद वह होली पूजने के लिए हामी भरता बदले में उसे एक रुपया दक्षिणा देनी पड़ती थी।होली जलाते समय हम गाते “राम क भक्त प्रह्लाद छ्याय नाम अमर जैक अब तक राय”।होली की परिक्रमा करते। होली जलने पर टीका लगाते और घर आ जाते।अगले दिन छरोळी याने धुलेंडी में अपने कपड़ें को रंग से बचा कर दूसरों पर रंग डालने की तरकीबें सोचते। कपड़े एक या दो जोड़ी ही होते थे।रंग पक्का करने के लिए केले के तनों के बक्कल का रस निचोड़ कर डाला जाता था।
होली से लगभग दो सप्ताह पहले हम सब बच्चे सायंकाल को गाँव के बीच धान के लिए पहली जुताई हुए खेत में एकत्र हो जाते और लगभग आठ-नौ बजे तक होली के गीतों की रिहर्सल करते समय के अन्तराल में उन गीतों के बोल धुंधला से गये हैं। इनमें से एक गीत तो यह था “जोगन पद है ईशुरी दाता।दाता के आगे शिवजी खड़े हैं।शिवजी को चाहिए पान सुपारी शिव जी के चाहिए धोती लंगोटी।” दूसरा “जो कि आयो शहर से व्योपारी।इस व्यौपारी को भूख लगी है खाना खिला दे घरवाली जो कि आयो शहर से व्यौपारी।” तीसरा जो गीत याद है वह था “जल कैसे भरूं जमुना गहरी,ठाडे भरूं तो राजा राम जी देखे बैठे भरूं तो भीगे चुनरी जल कैसे भरूं जमुना गहरी”।एक गीत था “नौ दस चम्पा के फूल मालिन हार गुँथा दे,हार चढे हरिद्वार मालिन हार गुँथा दे।” एक गीत “ओहो होली की धूम मची ब्रज मंडल में,”दशरथ के लछीमन बाल जती,चौदह बरस वन वास मे रहियो नींद न लागे एक रती,दशरथ के लछीमन बाल जती” आदि।
हमसे बड़े बच्चे गाते हम छोटे दोहराते।होली तक हम सभी गीतों को लगभग याद कर लेते थे।
होली के एक दिन पहले उत्साह के साथ हम सभी बच्चे बड़े बच्चों के साथ ढोलक चिमटा लेकर गाते हुए जाते थे। एक प्लेट में गुलाल रख कर एक बच्चे के हाथ में थमा दी जाती।जो घर के मुखिया को पिटाही लगाता। कुछ गुड़ तो कोई पैसे दे देता साठ के दशक में पाँच पैसे,दस पैसे,चवन्नी अठन्नी का जमाना था, कोई दिलदार होता था तो रुपया देता। जब कोई हमे कुछ देता तो हम गाते”श्री दानी दाता जुगाजुग जीवे उनके बाल बच्चे जुग जीवें हमसे प्रेम बढा उनको संवरी रंग लाओ भिगा उनको”। कुछ कुछ नहीं देते और मारने दौड़ते तब हम होल्यारों में भगदड़ मच जाती। कुछ का रुआब ही इतना था कि वहां हम सहमते-सहमते जाते।बस ईश्वर से यह मनाते कि हमें डाँट न पड़े।
होली के इन पैसों का हमने सदुपयोग किया। एकत्र धन से हमने अपने गाँव के लिए ड्राम के पात्रों के लिए कपड़े दाढी मूँछ परदे गरारी रस्सी आदि सामान जोड़ा था जो मथुरेश शृंगार कार्यालय मथुरा से मंगाया जाता था।
आज भी जब छोटे बच्चों की होल्यारों की टोली देखता हूँ तो अपना बचपन याद आ जाता है और हाथ जेब में चले जाता है,उन्हें कुछ न कुछ देने को।
अब होली का रंग ढंग बदल गया है।पर पहाड़ी गाँवें में होली और होल्यार नहीं बदले हैं।हाँ अब होली पर शराब का प्रचलन चल गया है।फिर भी शहरों की होली से गाँव की होली सुहावनी लगती है।
“सभी पाठकों को होली की शुभकामनाएं।”

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