महाराष्ट्र में पत्रकार की गिरफ्तारी लोकतंत्र की हत्या तो उत्तराखण्ड के पत्रकारों की गिरफ्तारी लोकतांत्रिक क्यों?
लेख-नागेन्द्र प्रसाद रतूड़ी
रिपब्लिक टीवी के प्रधान संपादक अर्नब गोस्वामी की गिरफ्तारी पर केन्द्रीय सूचना एवं प्रसारण मंत्री श्री प्रकाश जावड़ेकर की यह टिप्पणी उचित ही है कि महाराष्ट्र में प्रेस की स्वतंत्रता पर हमला है और इससे आपत्काल के दिनों की याद आती है श्री जावड़ेकर ने अपने ट्वीट में कहा कि “महाराष्ट्र में प्रेस की स्वतंत्रता पर हमले की हम निंदा करते हैं। प्रेस के साथ पेश आने का यह तरीका नहीं है। इससे आपत्काल के दिनों की याद आती है जब प्रेस के साथ इस तरह का व्यवहार किया जाता था।” वास्तव में पत्रकारों को गिरफ्तार कराने वाली सरकारों की जितनी निंदा की जाय वह कम ही है। केन्द्रीय मंत्री जावड़ेकर जी की यह टिप्पणी उचित व अनुकूल समय पर आयी है। वैसे आनी भी चाहिए क्यों कि वे वैधानिक रूप से प्रेस के राष्ट्रीय संरक्षक हैं । एक अच्छे शासक के रूप में यह उनकी वैधानिक जिम्मेदारी है कि प्रेस की स्वतंत्रता निरंतर बनी रहे और पत्रकार निर्भय होकर अपनी बात कह सके।पर केवल ट्वीट करने से पत्रकार का उत्पीड़न समाप्त नहीं हो सकता। इससे जनता की संविधान प्रदत्त अभिव्यक्ति की आजादी अक्ष्क्षुण रह सकेगी। इस ट्वीट से केन्द्रीय मंत्री की विवशता ही सामने आयी है।क्योंकि वे इस मामले में प्रदेश सरकार के पत्रकार विरोधी कार्य के विरुद्ध केवल दर्शक ही बन कर रह गये।उत्पीडन रोकने के लिए कुछ न कर सके। यहां पर उनके मन में यह जरूर आया होगा कि यदि पत्रकार उत्पीडन की कार्यवाही रोकने के लिए कोई केन्द्रीय कानून बना होता तो वे जरूर हस्तक्षेप करते। केन्द्रीय सूचना एवं प्रसारण मंत्री जी का यह ट्वीट तब न्यायोचित माना जा सकता है कि जब भाजपा शासित प्रदेशों में सरकार के विरुद्ध लिखने वाले पत्रकारों के दमन पर भी जब यही टिप्पणी होती। जैसे उत्तराखण्ड में भाजपा शासन में सत्ताशिखर पुरुषों के विरुद्ध लिखने वाले पत्रकारों पर राजद्रोह का मुकदमा थोप कर उन्हें लम्बे समय तक बंद रखने और उन्हें अपनी जमानत पर सुप्रीमकोर्ट जाने को मजबूर होना पड़ा। इन गिरफ्तारियों पर केन्द्रीय मंत्री ने प्रेस के संरक्षक के तौर पर कोई टिप्पणी नहीं की ।मंत्री जी यह की रहस्यमयी चुप्पी समझ से परे है।शायद यह हो सकता है कि अर्णब बड़े कद के पत्रकार हैं और उत्तराखण्ड के पत्रकार उनकी नजर में साधारण पत्रकार रहे होंगे। या महाराष्ट्र में विरोधी दल की सरकार है और उत्तराखण्ड में उनकी पार्टी की सरकार।जो भी हो उन्होंने उत्तराखण्ड की गिरफ्तारियों पर उन्होंने कोई टिप्पणी नहीं की।
उनकी इस न्यायोचित टिप्पणी पर मन हुआ कि उनसे पूछूं कि मान्यवर!दोहरा यह मानदण्ड क्यों।जब उत्तराखण्ड के पत्रकार राजद्रोह के मामले में गत वर्ष गिरफ्तार हो रहे थे तब शायद प्रेस की आजादी पर चार चाँद लग रहे थे क्या? तब आपने निंदा क्यों नहीं की।कहीं यह तो नहीं कि आपकी नजर में केवल व केवल भाजपा समर्थक पत्रकार ही पत्रकार हैं और उन्हें ही प्रेस की आजादी चाहिए?भाजपा का विरोध करते ही पत्रकार क्या अपराधी हो जाता है?पर पूछ नहीं पाता हूँ।उच्चन्यालय नैनीताल ने पत्रकार पर लगे राजद्रोह के मामले समाप्त कर उनपर मुकदमा करने वालों की मंसा को ध्वस्त कर दिया। अब यह तो हो नहीं सकता कि महाराष्ट्र में पत्रकार उत्पीड़न गलत और उत्तराखण्ड में न्यायोचित हो। केन्द्रीय मंत्री जावड़ेकर जी के संज्ञान में यह बात अच्छे से आगयी है कि प्रादेशिक सरकार पत्रकारों का उत्पीड़न करते हैं। ऐसे में उन्हें ऐसा कानून बनाने की पहले करनी चाहिए जिसमें पत्रकार अपना कार्य स्वतंत्रता से कर सके। उसे भी वही संरक्षण मिलना चाहिए जो एक लोकसेवक को मिलता है।मेरे मंशा यह भी नहीं कि पत्रकार को ऐसा संरक्षण मिल जाय कि वह नहीं मिलना चाहिए कि वह जिस पर चाहे मिथ्या आरोप लगा दे और पीत पत्रकारिता पर उतर आए।साथ ही सरकार को पीत पत्रकारिता को भी परिभाषित करना चाहिए। मेरे विचार से पत्रकारों पर किसी भी समाचार के लिए सीधे एफआईआर न कर पहले उस पर लगे आरोपों की जांच की जानी चाहिए। यह जांच पुलिस अधिकारी व सूचना विभाग के अधिकारी की संयुक्त जांच कमेटी द्वारा की जानी चाहिए।ताकि किसी भी पत्रकार का उत्पीडन न हो सके। सच यह है कि कैमरे के सामने कोई कुछ भी कहे पर वास्तव में राजनीतिज्ञ यह चाहते ही नहीं कि पत्रकारिता का व्यवसाय सुरक्षित व संरक्षित रह सके।वरना केन्द्र में शासन करने वाली हर पार्टी ने सत्ता में बाहर रह कर पत्रकार सुरक्षा व संरक्षण की आवश्यकता महसूस की पर सत्ता में आते ही इन पार्टियों ने पत्रकार सुरक्षा के लिए कोई कानून नहीं बनाया। आज इस प्रकार के कानून की नितांत आवश्यकता है।