बिना संवैधानिक सुरक्षा का लोकतंत्र का चौथा स्तम्भ-मीडिया.

लेख-नागेन्द्रप्रसाद रतूड़ी लोकतांत्रिक राष्ट्र में मीडिया का एक विशेष स्थान है. भारत जैसे बड़े लोकतांत्रिक देश में मीडिया को लोकतंत्रका चौथास्तम्भ बताया जाता है. पर यह केवल कहा ही जाता है वास्तव में है नहीं. जहां भारतीय संविधान में लोकतंत्र के प्रथम तीन स्तम्भों को अधिकार व सुरक्षा के नख दन्त व आवरण दिए गये हैं वहीं चौथे खंभे का कहीं उल्लेख भी नहीं है. लगता है यह नाम संविधान के तीनों खंभों में से एक ने मीडिया को खुश करने के लिए दिया हो या मीडिया ने इसे खुद ही स्वीकार कर लिया हो. अगर इसे चौथा खम्भा माना जाता तो इसे व्यक्ति की स्वतंत्रता के मौलिक अधिकार से काम न चलाना पड़ता. चलिए मान लेते हैं गुलामी के समय अंग्रेजों ने पत्रकारिता को कोई खास महत्व न दिया हो.इसका लगातार दमन किया है पर आजादी के सत्तर वर्षों में आजतक प्रेस को स्वतंत्रता का संवैधानिक अधिकार क्यों नहीं दिया गया. पत्रकारिता करने वालों के हित में, समाचार संकलन करने में उन्हें संवैधानिक रूप से स्वतंत्रता का कानून क्यों नहीं बना है? किसी जनसेवक व लोक सेवक को गिरफ्तार करने के लिए सरकार की अनुमति चाहिए परन्तु पत्रकार को कभी भी गिरफ्तार किया जा सकता है. उसे संवैधानिक सुरक्षा उसी प्रकार क्यों नहीं मिलती जिस प्रकार पहले तीन स्तम्भों को मिलती है. अपने जोखिम पर समाचार का संकलन व प्रकाशन करने वाले मीडिया से लोकतंत्र के प्रथम तीनों स्तम्भों के साथ-साथ जनता भी अपेक्षा रखती है कि वह निष्पक्ष हो, निर्भिक हो, सर्वज्ञ हो,पर सरकारी अधिकारियों की मनमानी नीतियों के कारण विज्ञापन न मिलने से या समय पर भुगतान न होने से बैंको का ऋण समय पर न लौटाये जाने पर कई समाचार पत्रों की अकालमृत्यु पर सरकार व जनता कभी बचाने आगे नहीं आते नहीं देखा.इस व्यापारिक युग में विधायिका,कार्यपालिका क्यों चाहती हैं कि मीडिया उनके बारे मे केवल अच्छा-अच्छा ही लिखे. जब कि वे बुरा कर रहे हों. क्या वे आत्म विश्लेषण करते हैं.क्या वह देश से उतना ही लेते हैं जितना उनका अधिकार बनता है,क्या उनके पास जो संपत्ति है वह वैध रूप से अर्जित की गयी है?जब यह दो स्तम्भ शुचिता से पूर्ण नहीं हैं तब वह मीडिया से कैसे अपेक्षा करते हैं कि वह शुचिता पूर्ण कार्य करे. बहुधा मीडिया पर पीत पत्रकारिता का आरोप लगता है. आखिर यह पीत पत्रकारिता है क्या? अगर किसी नेता या अधिकारी के अवैध कार्यों की वजह से कमाई में हिस्सा पीत पत्रकारिता है तो दोषी केवल पत्रकार ही क्यों?वह नेता या अधिकारी क्यों नहीं? मेरा उद्देश्य गलत लोगों का पक्ष लेना नहीं है, न ही पीत पत्रकारिता को जायज ठहराना है मेरा उद्देश्य उन परस्थितियों की ओर ध्यान आकर्षित करना है जिनसे ऐसी स्थिति बनती है.जब एक वेतन व सरकारी सुविधा से लैस जन सेवक व लोकसेवक गलत कारयों को अनदेखा करने के या गलत कार्य करने के़ लिए धन लेता है तो मीडिया उनके गलत कामों को उजागर न करने के लिए धन लेता है तो आलोचना का शिकार केवल मीडिया ही क्यों? वह जनता क्यों नहीं जो चुनाव में पैसे लेकर भ्रष्ट लोगों को वोट देकर विधायिका में जगह देते हैं,वह जन सेवक क्यों नहीं जो थैली लेकर भ्रष्ट कार्यपालक को अवैध धन अर्जित करने देता है,वह कार्यपालक क्यों नहीं जो अवैध कार्यकरने वालों से धन अर्जित करता है. वह संस्था क्यों नहीं जो इन सब की रोकथाम के लिए हैं. ऐसे अवैध कमाई करने वालों का एक समूह होता है. जो पत्रकारों को लालच देते हैं.अब पत्रकार के पास दो ही विकल्प होते हैं या तो वह उस समूह का सदस्य बन जाय या उस समूह के अवैध धंधों का प्रकाशन न करे. दूसरी स्थिति में उसे मार डाला जाता है जैसे एक शराबमाफिया व पुलिस गठजोड़ ने अमरउजाला के उमेश डोभाल को मार्च1988 में मार डाला था या उसे फर्जी मुकदमों में फंसा दिया जाता है. जैसे राजाजी राष्ट्रीय पार्क के एक रेंजर ने सन् 1987 व 1988 में मुझे मानहानि के दो मुकदमों में फंसा दिया था. मीडिया को भले ही चौथा स्तम्भ माना गया हो परन्तु उसमें कार्य करने वाले कुछ पत्रकारों को जिनको वेतन मिलता है को छोड़ कर बहुत दयनीय स्थिति में हैं शायद सरकार व अधिकारियों को यह मालूम नहीं है कि ग्रामीण क्षेत्र में कार्यरत पत्रकारों को या तो मानदेय दिया ही नहीं जाता है या दिया जाता है तो बहुत कम धनराशि.उनसे विज्ञापन की अपेक्षा की जाती है. सरकार ऐसी प्रक्रिया क्यों नहीं अपनाती कि जब जो अखबार अपना प्रतिनिधि या संवाददाता रखे तो उन्हें सम्मानजनक मानदेय भी दें. आखिर सरकारों को सूचना कार्यालयों को ब्लाक स्तर तक स्थापित करने में परेशानी क्यों है. जनता यह क्यों भूल जाती है कि मीडिया भी इसी समाज का अंग है. रहा होगा कभी मीडिया मिशन का कार्य आज तो यह जीविकोपार्जन का साधन भी है. बिना किसी सुरक्षा के समाज के हित के लि