प्रवासियों को रोकने के लिए सरकार को करने चाहिए विशेष प्रयास।
लेख-नागेन्द्रप्रसाद रतूड़ी
राज्य मान्यताप्राप्त स्वतंत्र पत्रकार
राज्य आन्दोलनकारी
कोरोना के डर से उत्तराखण्ड में विभिन्न प्रदेशों से प्रवासी लौट रहे हैं जिनकी अनुमानित संख्या लगभग दो लाख से अधिक होगी इनमें वह लोग भी है जो कल कारखानों, होटलों,ढाबों में मजदूरी से ले कर साधारण पदों पर कम वेतनमान पर काम करते हैं और वह लोग भी है जो आईटी व अन्य सेक्टर में अच्छे पदों व ऊंचे वेतनमान पर काम करते हैं। इन में कुछ तो लॉकडाउन में अपनी जमा पूंजी गंवा कर लौटे होंगे।कुछ के पास जमापूंजी होगी। पर यह जमा पूंजी कितनी है व कितने दिन चलेगी कहा नहीं जा सकता।
कोरोना कहर कम होने के बाद देश के कितने ही उद्योग,कल कारखाने बंद होने से बेरोजगारों की फौज निश्चित रूप से बढेगी।ऐसे में उत्तराखण्ड के कितने लोग वापस लौट पाएंगे कहा नहीं जा सकता।हो सकता है कि कुछ लोग परम्परागत खेती की ओर लौट जाएं।पर दूर-दूर बिखरे व असिंचित खेत के साथ बेलगाम बंदर, लंगूर, सुअर, साही,हिरन,मोर,भालू आदि जानवर जहां उनकी खेती को नुकसान पहुंचाएंगे वहीं गुलदार,भालू आदि जानवर उनके पालतू पशुओं को और उनको निवाला बनाएंगे। ऐसे में खेती तभी लाभदायक हो सकती है जब खेतों की चकबंदी हो।
जंगली जानवरों से खेती व पशुधन की क्षति पर तुरंत मुआवजा मिले।यह मुआवजा पटवारी व पंचायत विभाग के अधिकारियों की जॉच पर ट्रेजरी से मिलना चाहिए। इसमें पशुपालन विभाग व वन विभाग को न जोड़ा जाय।क्यों क्यों कि पहाड़ों में पशुचिकित्साल बहुत दूर दूर हैं और जरूरी नहीं कि वहां चिकित्सक हो ही।यही स्थिति वन विभाग की है उदाहरण के तौर पर यमकेश्वर तहसील लालढांग रेंज के अधीन आता है। अब लालढांग जाने के लिए उसे कोटद्वार हो कर या ऋषिकेश हरिद्वार होकर जाना पड़ेगा। जिसमें उसका समय नष्ट होता है। इससे आम आदमी परेशान होकर मुआवजे की मांग करने से कतराता है जिससे धीरे-धीरे वह पशुपालन से दूर होता जाएगा।और खेती से उसका मोहभंग हो जाएगा। पहाड़ के अन्य लोगों की तरह वह किसान से मनरेगा मजदूर हो जाएगा।
अब उन लोगों की बात करते है जो कुछ जमापूंजी लेकर लौटे हैं इनमें कंपनियों में अच्छे वेतन वाले या अपने धंन्धे वाले लोग हैं।अगर इनकी कंपनी,कारखाने या काम धंधे फिर से शुरू हुए तो इनके वापस जाने की संभावना है।यह वह वर्ग है जो पैसे वाले हैं यह अपना काम धाम यहां खोलने में सक्षम हैं।अगर यह लोग यहां उद्योग धंधे खोलें तो कई लोगों को यहां काम मिल सकेगा परन्तु काम धंधे खोलने के लिए लाईसेंसों के चक्कर में अधिकारी उनकी चक्करघिन्नी न बना दें शासन को यह बात ध्यान में रखनी होगी।केवल शासनादेश बना देने से समस्या का निराकरण नहीं हो सकता।
खेती की ओर लौटने वाले लोगों की सरकार को विशेष मदद करनी होगी। अगर पलायन रोकना है तो पहले सरकार को दृढ निश्चय करके चकबन्दी करनी होगी।बैलों की जगह यंत्रों को देनी होगी।पहाड़ी खेतों में चल सकने वाले पावर ट्रिलर को ट्रैक्टर का रूप दिया जाना चाहिए।तथा जो किसान कृषि यंत्र लेना चाहें उन्हें बैंक से कम से कम पांच साल के लिए बिना ब्याज के ऋण दिया जाय।और कृषियंत्रों में पर्याप्त अनुदान दिया जाना चाहिए।उस पर शर्त यह हो कि वह उस यंत्र को पांच साल तक विक्रय न कर सके।
हरित क्रांति में बहुत बड़ी भूमिका निभाने वाले गोविन्द बल्लभपन्त कृषि विश्व विद्यालय में पहाड़ी फसलों पर शोध कर उनकी नस्लें विकसित की जानी चाहिए।ताकि असिंचित क्षेत्रों में कम वर्षा वाले क्षेत्रों में भी अच्छी फसल उगाई जा सके।शोध झंगोरा,कौंणी उखड़ी धान गेहूं ,जौ आदि अनाजों ,लैय्या,राई, तिल आदि तिलहनों मूळा, कद्दू, तोरी, चचिंडा,पहाड़ी टमाटर आदि सब्जियों, तोर, उड़द,गहथ, रयांस,लोबिया आदि दलहनों पर होना चाहिए। जिससे किसान खेती की ओर आकृष्ट हो सके।इसके लिए अलग से पहाड़ी बीज अनुसंधान संस्थान केन्द्र खोला जा सकता है।
खेती को नष्ट करने वाले बन्दरों सुअरों से बचाने के लिए अगर सरकार उन्हें मारना नहीं चाहती तो प्रत्येक खेती योग्य जमीन के चारों ओर सौर ऊर्जा बाढ लगाई जानी चाहिए।अगर सरकार यह नहीं कर सकती तो सस्ते दामों पर ऐसी बन्दूकें किसानों को सस्ते दामों में उपलब्ध कराए जिनसे केवल जोरदार धमाके हों।
पहाड़ो में फल तो बहुत होता है पर उसका सदुपयोग नही हो पाता।सरकार को न्यायपंचायत स्तर पर मंडियां बनानी चाहिए जहां यहां के फल बिक सकें।मंडियां या मंडी समितियां केवल सत्तारूढ दल के कार्य कर्ताओं को पद देने के लिए न हों । वास्तविक रूप से मंडी चले जिनमें किसानों की फसल बिक सके।
दुधारू पशुओं से दूध उत्पादन कर उत्तराखण्ड में श्वेत क्रांति लायी जा सकती है। इसके लिए पहाड़ी व मैदानी क्षेत्र में डेयरी के लिए किसानों को प्रोत्साहित किया जाना चाहिए।सरकार को सोचना चाहिए कि जो उत्तरखण्ड कभी दूध के लिए आत्म निर्भर था आज उसके सुदूर गांवों में दूध की थैलियां जा रही हैं ऐसा क्यों हो रहा है ।अफसोस यह कि यह सब राज्य निर्माण के बाद हुआ।राज्य निर्माण के बाद पहाड़ों से पलायन द्रुत गति से हुआ। सुविधा हीन पहाड़ों को छोड़ कर लोग तराई भाबर में बस गये। काम काज न होने से नगरों महानगरों की ओर जाने को मजबूर हुए हैं।
प्रवासियों को रोकने के उपाय तो बहुत हैं पर मुख्य बात है उनको धरातल पर उतारने व उनका सही से क्रियान्वयन करने की। पर यह सब तभी संभव है जब उत्तराखण्ड की नौकरशाही उत्तराखण्ड वासियों के हित में काम करे।