पुलिस व आन्दोलनकारियों दोनों को संयम रखना चाहिए।पढिए Janswar.Com में।

पुलिस व आन्दोलनकारियों दोनों को संयम रखना चाहिए

लेख-नागेन्द्र प्रसाद रतूड़ी ।
(राज्य मान्यताप्राप्त स्वतंत्र पत्रकार)

किसी ने मुझे एक वीडियो भेजा। जिसमें पुलिस की लट्ठबाजी का यह नमूना शायद गैरसैंण में देखने को मिला।इसे देख कर वह दौर याद आगया राज्य आन्दोलन में हम पर पुलिस ऐसे ही लट्ठ नमूना दिखाती थी। वह उ.प्र. की पुलिस थी हम सोचते थे कि हमारा राज्य बनेगा तो हमारे लोग होंगे पुलिस में । तब शायद यह बर्बरता देखने को नहीं मिलेगी।पर आज इस वीडियो को देखकर मुज्जफ्फर नगर रामपुर तिराहा याद आ गया।पुलिस तो पुलिस है वह कहीं की भी हो।याद तो चन्द्रसिंह गढवाली भी आये।एक आन्दोलनकारी के रूप में आज पछतावा हो रहा है क्या हमने इसी दिन के लिए राज्य की लड़ाई लड़ी।
हो सकता है यह भीड़ कांग्रेस की रही हो या हो सकता है यह यूकेडी या अन्य राजनीतिक पार्टियों की रही हो। पर वह उत्तराखण्ड के नागरिक थे।वे अधिक से अधिक धरना देते। नारे लगाते,बहुत अधिक होता तो विधान सभा परिसर में घुस कर नारेबाजी करते। इससे अधिक वे कुछ नहीं करते
क्यों कि राज्य आन्दोलन में उत्तराखण्डियों के आन्दोलन की सराहना सारे संसार ने की थी। सरकार का व सरकारी संपत्ति का एक रत्ती नुकसान न करके महीनों आन्दोलन चलाना सामान्य बात नहीं। बिल्कुल गांधीवादी तरीका।
दुख इस बात का है कि लाठी चलाने वाली उत्तराखण्ड पुलिस ने ठीक उत्तर प्रदेश पुलिस के नक्शे कदम पर चल कर जिस बर्बरता से लाठी चलाई उससे वृद्ध व महिलाएं भी चोटिल दिख रही हैं।अगर ऐसा हुआ तो 02अक्टूबर 1994 को मुज्जफ्फर नगर की रामपुर तिराहे पर स्थित पुलिस और उत्तराखण्ड पुलिस में अन्तर क्या रह गया है।
इस कांड में दोषी केवल पुलिस ही नहीं मानी जा सकती। प्रशासन भी दोषी है।क्यों कि प्रशासन ने ही इन आन्दोलनकारियों की बात सुन लेती तो शायद उन्हें बैरिकेटिंग तोड़ने की जरूरत ही नहीं रह जाती।
उत्तराखण्ड पुलिस के एक ट्वीट में इस लाठी चार्ज के लिए आन्दोलनकारियों को जिम्मेदार ठहराया गया है। हो सकता है कि पुलिस अपनी जगह पर सही हो पर लाठी चार्ज को जायज नहीं ठहराया जा सकता है। न आन्दोलनकारियों के पथराव को ही सही माना जा सकता है। आन्दोलनकारियों का यह व्यवहार पहाड़ी संस्कृति के अनुकूल बिल्कुल नहीं है । क्यों कि पीटने वाले व पथराव करने वाले सभी अपने थे।
हमें अपने पहाड़ के वरिष्ठ आन्दोलनकारी आदरणीय चन्द्र सिंह गढवाली को हमेशा याद रखना चाहिए जिन्होंने निहत्थे आन्दोलनकारियों पर गोली चलाने से इन्कार कर दिया था। हमें श्रीनगर के 1994 के आन्दोलन में पुलिस उपनिरीक्षक शाह को भी याद रखना चाहिए जिन्होंने आन्दोलन के उग्र होने पर अपनी ही कनपटी पर रिवाल्वर रख कर कहा कि अगर भीड़ नहीं रुकी तो वे अपने को ही गोली मार देंगे। आन्दोलनकारियों ने तुरंत उग्रता छोड़ दी। हमें 1994 में थानाध्यक्ष लक्ष्मणझूला अनुज त्यागी को भी याद रखना चाहिए जब सारे गढवाल में कर्फ्यू लगा था तो उन्होंने अपने थाना क्षेत्र में कर्फ्यू नहीं लगवाया।
मुझे एक बहुत पुरानी घटना याद आती है सन् 1985-86 में उ.प्र.के प्राथमिक शिक्षक संघ ने अपने प्रदर्शन मे लखनऊ विधानसभा के सामने की सड़क पर जबर्दस्ती घुस कर धरना दिया था वहां पर लगी धारा एक सौ चवालीस को तोड़ कर पर मजाल क्या कि किसी पुलिस वाले ने किसी शिक्षक पर लाठी भी तानी हो।हां अग्रिम पंक्ति के नेताओं को हिरासत में जरूर लिया गया पर बेहद सम्मान के साथ।जिन्हें प्रशासन ने कुछ देर में बिना शर्त रिहा कर दिया था। तब शिक्षकों ने जमकर विधानसभा के बाहर रात के दस बजे तक धरना दिया।
इस घटना की मजिस्ट्रेटी जांच के आदेश मुख्यमंत्री ने दिए हैं । जांच में जो भी दोषी हो उस पर कार्यवाही होगी।पर प्रश्न यह है कि आन्दोलनकारियों, पुलिस अधिकारियों व प्रशासन को संयम से काम लेते तो ऐसी अप्रिय स्थिति से बचा जा सकता था।

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *