सोनम रावत
घोघा माता
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जहां एक ओर आज के इस मशीनी युग में लाेग धर्म और आस्था से विमुख हाे रहे है।वहीं दूसरी ओर उत्तराखंण्ड के लाेग अपनी प्राचीन संस्कृति व आस्था काे बनाये हुए हैं इस का जीता जागता सबूत है चैत्र मास में नन्हें मुन्हें बच्चों द्वारा घर-घर जा कर घाेघा देवता की डाेलियाें के साथ मकान की देहरियाें में ताजे फूलाें काे रख कर उस परिवार की सुख शान्ति की अपने निष्छल मन से पहाडी लय से सुशाेभित कर देने वाले गीताें से मनाेकामना करना। फिर मास के अन्त में छाेटे बच्चाें काे उस घर द्वारा गुड़, चावल और सिक्के दिए जाते हैं। शाम काे इन चावलाें की सई बनाई जाती है, जिसे लाेगाें में बांटा जाता है।
पर्वतीय क्षेत्रों में पलायन का जो सिलसिला चल रहा है अगर पलायन की यही रफ्तार रही ताे एक दिन यह परम्परा भी केवल किताबाें में ही पढने काे मिलेगी।
मेरी पर्वतीय क्षेत्र के प्रवासियों से विनम्र अपील है कि जैसे बिहार के लोग कहीं भी रहें अपने छट आदि त्यौहारों को जरूर मनाते हैं अपनी परंपरा को नहीं भूलते। उनसे सीख लेकर हम पहाड़ी लोग भीअपनी परंपरा व त्यौहारों को जहां भी रहें वहीं मना कर जिन्दा रख सकते हैं।
हम शहरों में दीपावली मनाते हैं पर बग्वाळ भूल गये हैं,इगास भूल गये हैं।जब कि हम उन्हें मिल कर मना सकते हैं। हो सकता है शुरू-शुरू में परेशानी आए दूसरे लोग मजाक उड़ा सकते हैं।परन्तु धीरे-धीरे वह भी सहयोग देने लग जाएंगे।
अपने त्यौहारों को दिल से मनाइए।अपनी पर्वतीय संस्कृति को समृद्ध बनाइए।